बुधवार, 5 दिसंबर 2018

नज़्म

नज़्म 
कुछ ठहर जाओ 
कुछ देर को और ठहर जाओ। 
इक छोटी सी बात 
आज ज़रा सुन जाओ। 
वो जो जादू भरा मोहब्बतों का दौर था, 
अनगिन हसीं लम्हों से सजा नायाब और पुरजोर था। 
ज़रा देर को और उसे लौटा लाओ,
कुछ देर तो ठहर जाओ। 
सुनो, आईना आज तुमसे पूछ रहा, 
तेरी नज़रों में जब मेरी छाया बसी,
तब निगाहों की कैफ़ियत क्या थी? 
हमकदम बनकर जो हम तुम थे चले, 
तब इन हाथों की खासियत क्या थी? 
रौनकें देखीं थीं जब बागों में हमने 
तब उन बहारों की रंगत क्या थी? 
मैं जो आंसूं की शक़्ल में ढल गई,
उस पल मेरी अहमियत क्या थी? 
सारी तहरीरें इक तरफ रख दो, 
बस ये बता दो कि हम ही से 
वो चाहत क्या थी? 
दौर जो जादू भरा बीत गया, 
उसके एहसास में वो गर्मास क्या थी? 
अब,
इस याद का आलम देखो,
हम यहां हैं मगर यहीं पर नहीं। 
मेरी हर बात पर जो निसार थी जां,
हर कहीं होगी मगर यहीं पर नहीं।  
मैं जो फ़रियाद करूँ कि फिर से लौट आओ, 
तुम मुझे फिर से ठुकरा देना। 
जो ये कहूं कि मेरे पास तुम बैठ जाओ, 
तुम हाथ छुड़ा के चुपके से चल देना। 
गर आँसूं बन गाल पर फिसलने लगूँ,
मुझसे नज़रें फिर यूँ ही फेर लेना। 
मैं फिर भी मोहब्बत से सराबोर रहूंगी
और हर बार तुमसे यही कहूँगी,
मुझसे जी न चुराओ, 
इन उँगलियों को यूँ न छुड़ा कर जाओ, 
मेरे ख्यालों में कुछ देर तो और कसमसाओ,
मेरे वजूद में ज़रा और घुल जाओ, 
कुछ ठहर जाओ,
कुछ देर तो ठहर जाओ। 
 

बुधवार, 14 नवंबर 2018

साथी कौन?



अकेले में रो लेना, 
अकेले ही दु:खी होना,
अकेले में प्रेम करना, 
अकेले ही प्रेम को नकारना,
अकेले में गीत गाना 
अकेले ही मुस्कुराना, 
तमाम लोग हों आसपास 
तो भी अकेले थिरकना, 
क्या पता कौन  
किसी कोमल पल में 
साथ होने का एहसान जता दे! 
क्या पता किसी को 
अचानक अपने 
अहम का नशा हो जाये!
क़दम दर क़दम 
अकेले ही तुम चलना 
इस क़दर ख़ामोश कि 
तुम्हारा चलना,
मीलों मील 
कोई जान ही न पाये।
अकेले ही जीवन पथ पर
कुसुम की तरह बिखरना,
विनम्र श्रद्धांजली की तरह
अकेले ही तुम मुरझाना। 
-Poojanil

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

मरीचिका

हम धीरे धीरे ख़त्म हो रहे थे 
जैसे एक बादल बूँद बूँद बरस रहा हो 
देर तक हवा में झूलने की इच्छा लिये हुए। 
हम कम कम ख़्वाब देख रहे थे 
मानो सारा ख़्वाब अाज ही देख लिया 
तो सारी सांसें भी आज ही ख़त्म हो जायेंगी। 
हम और जीना चाहते थे, 
लेकिन धरती भारी हुई जा रही थी 
और हमारा मरना निश्चित ही तय था। 
हमारे पास नीले गुलाब थे 
किन्तु अनदेखे लाल गुलाब की अबूझ आस ने 
साँस को जन्मों तक अटकाए रखा। 
हमारी हड्डियाँ हर रोज़ चूरा हुए जा रहीं थीं 
और हम दिन रात नाहक ही प्रेम प्रेम रट रहे थे। 
कोई तमाशा चल रहा था आँखों के आगे, 
टाँगे मरगिल सी थीं, 
किन्तु मन ठुमकता रहा प्राण चलने तक। 
-पूजा अनिल

सोमवार, 25 जून 2018

सबकी गरदन झुकी है

मेरे देश में राजनीतिक उठापटक का दौर जारी है 
आरोप प्रति आरोप का दौर भी तारी है 
उधर सीमा पर गतिविधि भारी है 
इधर किसानों की अपनी परेशानी है 
बच्चों के भविष्य के पीछे को कोई हाथ धोकर पड़ा है 
किसी ने एक दम हाथ हैं छुड़ा लिए  
अमीरों को फ़ुरसत नहीं दिखावे से 
गरीबों को रोज़ की रोटी जुटाने से 
मध्यम वर्ग सोशल नेटवर्क की गिरफ्त में उलझा है 
मोबाइल के फॉरवर्ड गेम में किसी का मन रमता है 
इतनी आपाधापी में कौन किसकी सुने 
हर किसी ने बेतरह कान हैं ढक लिए  
बहरहाल, किसको कहूँ यह सब, सबकी ही गर्दन झुकी है 
मैं कहती हूँ सब अनदेखा कर पूजा, तेरी ही दृष्टि बुरी है ।
-पूजा अनिल 

शुक्रवार, 11 मई 2018

देश निर्माण और हमारी जिम्मेदारी

लगभग चार साल पहले की बात है। मेड्रिड म्युनिसिपेलिटी की तरफ से मेरे बच्चों के स्कूल में एक पर्यावरण समिति बनाई गई थी।  उसमें  स्कूल के डायरेक्टर, हेड ऑफ़ स्टडी, दो- तीन टीचर्स , दो कक्षा प्रतिनिधि बच्चे, सफाई कर्मचारी और दो ऑफिस कर्मचारी के अलावा दो अभिभावकों को भी लिया गया। मुझे अभिभावकों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने का मौका मिला। 

साल में तीन बार मीटिंग होती। तब वहाँ एक निर्णय यह लिया गया कि स्कूल में बच्चों को कचरा अलग अलग छंटनी करके फेंके जाने की शिक्षा दी जानी चाहिए। जैसे कि प्लास्टिक वैस्ट अलग डब्बे में, कागज़ और गत्ता अलग डब्बे में और आर्गेनिक वैस्ट अलग डब्बे में। इस से उन्हें हर तरह के वैस्ट  को ''रीसायकल करना'' समझाना आसान हो जायेगा। 

अब इस कार्य को मजेदार ऐसा बनाया जाए कि बच्चों को सहज ही समझ भी आ जाए और वे इस नियम का पालन न सिर्फ अपने स्कूल में करें बल्कि घर में भी सभी को यह नियम सिखाएं। इसके लिए सफ़ेद रंग के कचरे के नये डब्बे मंगवाये गए और उनके  ढक्कन के ऊपर रंग बिरंगे स्टिकर लगाए गए जो यह बताते थे कि किस डब्बे में कौनसा कचरा जायेगा। डब्बे इतने आकर्षक थे कि बच्चों को सहज ही अपनी और खींच लेते थे। ढक्कन भी इतने आसान कि किसी को इन ढक्कन को हाथ लगाने की आवश्यकता ही न हो। यानि आप धकेलते हुए कचरा फेंकेंगे तो ढक्कन अपने आप खुलेगा और फिर बंद हो जायेगा। पूरे स्कूल में दो दो डब्बों का सेट जगह जगह रखवाया गया ताकि बच्चों को अपने नजदीक ही डब्बा दिख जाए और वे चित्र देख कर सही डब्बे में सही कचरा फेंकने की आदत डालते जाएँ।  इसके अलावा एक एक डब्बा नीले रंग का हर एक कक्षा में पहले ही रखा गया था जिसमे सिर्फ कागज़ और गत्ता  ही फेंका जाता था। 

यही नहीं, बाद में हर एक कक्षा से दो दो  प्रतिनिधि और चुने गए जो यह सुनिश्चित करते थे कि बाक़ी सभी बच्चों को कचरा छंटनी करने की बात समझ में आ गई है। मज़ा तब आता था जब बच्चे खुद अपने माता-पिता का हाथ पकड़ कर इन सुन्दर से कचरे के डब्बों के समीप ले जाते और उन्हें कचरा छंटनी करने का नियम बताते। 
 मैंने तीन साल तक इस प्रोजेक्ट में भाग लिया।स्कूल की तरफ से हर साल नए बच्चों को इस प्रोजेक्ट में इन्वॉल्व किया जाता और इसके सुखद परिणाम देखते हुए स्कूल को दूसरे सालअवार्ड भी मिला। 

 जिस तरह से एक मुहिम सी चला कर स्कूल के सभी छोटे बड़े लोगों को इस प्रोजेक्ट में सम्मिलित किया गया वह काबिले तारीफ है।  इन छोटे बच्चों के जेहन में आज जो साफ़ सफाई और रीसायकल का कांसेप्ट बिठाया जायेगा, वह कांसेप्ट निश्चित ही उन्हें बड़े होने पर अपने आसपास के परिवेश में सफाई की आदत का संचार तो करेगा ही उन्हें देश का अच्छा नागरिक बनने को भी प्रेरित करेगा। बड़े होने पर यही शिक्षा वे अपने बच्चों को भी देंगे। 

यह शिक्षा एक तरह से स्कूल को और समृद्ध करने का तरीका साबित हुई जबकि स्कूल में पहले से ही हर साल ''बेस्ट आउट ऑफ़ वैस्ट'' प्रतियोगिता का आयोजन होता आया है। 

किसी भी देश का निर्माण इसी तरह होना चाहिए कि धीरे धीरे अच्छी आदतें अपनी जड़ें जमाती जाएँ और देश निर्माण में हर व्यक्ति की विशिष्ट भागीदारी भी निश्चित हो जाए। आख़िर एक देश उसके निवासियों से ही निर्मित होता है, इसलिए यह समझना आवश्यक है कि देश के प्रति जिम्मेदारी भी सभी की होती है चाहे वे बच्चे हों या बड़े। महत्वपूर्ण यह है कि छोटे से छोटे काम के प्रति भी सम्पूर्ण समर्पण रहे और कभी भी निष्ठा में कमी न आये। 
-पूजा अनिल 

गुरुवार, 10 मई 2018

शुक्रवार, 4 मई 2018

जाने ज़िन्दगी


कोई तोड़ मरोड़ कर पढ़ाया गया इतिहास नहीं 
बेहद सुनियोजित पावन मंत्रोच्चार है ज़िन्दगी। 

दो पटरियों पर रेंगती भाप वाली रेल नहीं 
खुली हवाओं का बहान तेज़ रफ़्तार है ज़िन्दगी। 

परदे में छुपकर वार करने की राजनीति नहीं 
सुबह की मुलायम धूप  का विस्तार है ज़िन्दगी। 

दोस्ती के संदेश में रचा दुश्मनी का मायाजाल नहीं 
शिशुवत मुस्कान का पवित्र त्यौहार है ज़िन्दगी। 




शनिवार, 24 मार्च 2018

बादाम के पुष्प





 



बादाम के पुष्प
जब भारत से स्पेन आई तो यहां उगने वाले फूलों से भी धीरे धीरे परिचय होने लगा। पिछले अट्ठारह साल में मुझे हमेशा से ही ये बसंत में खिलने वाले बादाम के पुष्प अपनी और बेहद आकर्षित करते हैं। Prunus Dulcis इसका वैज्ञानिक नाम है और आम तौर पर यह बादाम के वृक्ष के नाम से जाना जाता है। यहां स्पेन में Almendro के नाम से पहचानते हैं इसे।
स्पेन में स्प्रिंग/बसंत आने से कुछ पहले ही फरवरी में बादाम के खुशबूदार, नरम ओ नाज़ुक फूल खिलते हैं और इनकी सामूहिक प्राकृतिक छटा अद्भुत नज़ारा चारों और बिखेरती है। इनकी नज़ाकत का आलम यह है कि हवा के बहने भर से ही ये सुन्दर पुष्प दल बिखर कर ज़मीन पर गिर जाते हैं, उस पर यदि बारिश जल भी गिरने लगे तो ये अद्भुत कुसुम दल अल्प आयु में ही वृक्ष से विदा ले लेते हैं । वैसे यह भी प्रकृति की ही लीला है कि प्रकृति इन दिनों जब भिन्न पुष्प दल विकसित कर रही होती है ठीक इन्ही दिनों इंद्र देव भी अपनी मेघ सेना की उपस्थिति से स्पेन के जलाशयों में जल संग्रह का कार्य कर रहे होते हैं।
मद्रिद में कई जगहों पर इनके अर्थात बादाम के आलंकारिक वृक्ष रोपे हुए हैं। यहां शहर के विभिन्न हिस्सों में बादाम के पेड़ आसानी से दिख जाते हैं और मद्रिद शहर में ही अलकाला स्ट्रीट के 527 नंबर पर स्थित सार्वजानिक उद्यान में लगभग 1500 बादाम के वृक्ष एक साथ खिले हुए देखना चाहते हों तो Quinta de los Molinos (Madrid) उद्यान में पहुँच कर इस नैसर्गिक जामुनी रंगी उत्सव का अवश्य आनंद लीजिये।
धूप में उगने वाले लगभग दस मीटर के इस पेड़ पर चार या पांच पुष्प समूह में फूल खिलते हैं। पांच पंखुड़ियों वाला यह करीब एक इंच का द्विलिंगी पुष्प सफ़ेद से हलके गुलाबी रंग का होता है। एक ही पुष्प में पंद्रह से तीस पुंकेसर लगे होने से पंखुड़ियाँ कुछ कुछ छींटदार दृश्यमान होती हैं। और जब पर्ण विहीन वृक्ष कुसुमाकर प्रतीत होता है तब कल्पना में ही यह गुलाबी जमुनी दृश्य रोमांच पैदा कर देता तो सदेह उपस्थिति का आलम कैसा होगा यह वर्णन करना कठिन है।
मौका मिले तो दुनिया के विभिन्न देशों में स्थित इन पुष्पों से परिचय अवश्य करें। यक़ीन मानिये आप जैसे ही इनके क़रीब जायेंगे ऐसा प्रतीत होगा कि ये पुष्प आपसे बातें करने को उत्सुक हैं, मानो इन्हें बरसों से आप ही की प्रतीक्षा थी। इनका कोमल स्पर्श ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आप देवलोक की सैर कर रहे हैं । इन दिनों मैं समय मिलते ही मद्रिद में इन कुसुम दलों से बतियाने निकल पड़ती हूँ, अवसर मिले तो आप भी निकल पड़िये लेकिन ध्यान रखिये कि यह प्राकृतिक नज़ारा सिर्फ़ फरवरी से अप्रैल तक ही दृष्टिगोचर होगा।
साहित्य और कला में भी इस पुष्प की उपस्थिति बहुतायत से विद्यमान है। यहां तक कि इस पुष्प के लिए साहित्यिक प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है। जन मानस से जुड़े इस पेड़ और फूल को लेकर अक्सर लोग उत्साहित रहते हैं। पलेस्टाइन के प्रसिद्ध कवि महमूद दार्विक्स ने अपनी अंतिम पुस्तक का नामकरण बादाम के पुष्प के नाम पर ही किया, उसी किताब से इस पुष्प को समर्पित कविता से कुछ पंक्तियाँ देखिये:-
बादाम के फूल का
वर्णन करने के लिए
वनस्पति शास्त्र का कोई
प्रामाणिक विश्व कोश नहीं
कोई शब्दकोष भी नहीं
भाषाई शब्द अलंकार के जाल में फँसूँगा मैं /
और अलंकारिक भाषा से ज़ख़्मी होगी चेतना
और यही ज़ख्म का यश गान करेगी
ठीक उस मर्द की तरह
जो अपनी स्त्री को भावुकता का आज्ञापत्र लिखवाता है
यदि मैं अनुगूँज हूँ तो....
मेरी बोली में बादाम के पुष्प को कैसा प्रदीप्त होना चाहिए? शायद इस तरह...
पारदर्शक, जैसे पानी सी हंसी
टहनियों पर लजीली, ओस की बूँद सा
सौम्य, रसीले उज्जवल वाक्य की तरह
नाज़ुक, उस लम्हे की तरह जो
किसी खयाल हमारी उंगली के पोर से झांकता है
और निष्प्रयोजन हम लिखते हैं...
घनीभूत, उस कविता की तरह जो
शब्दों से नहीं लिखी जाती
बादाम के पुष्प का वर्णन करने के लिए
मुझे अचेत भ्रमण पर जाना होगा
जहाँ शब्द कोष पर प्रबल हो
वृक्ष से लिपटी हुई भावुकता
.......
(स्पेनिश से अनुवाद- पूजा अनिल )
Vincent van Gogh ने इस पुष्प को लेकर कुछ पेंटिंग्स बनाई हैं। इंटरनेट पर Almond Blossom / Almendro En Flor लिखेंगे तो आसानी से मिल जाएँगी वे तस्वीरें।
- पूजानिल
- रात के एक बजे इस समय जब मैं यह आलेख लिख रही हूँ, बाहर बहुत तेज़ बारिश हो रही है और वेगवान हवा चल रही है। कांच की खिड़की पर गिरती बूंदों की आवाज़ से प्रतीत हो रहा है कि तेज़ आंधी तूफ़ान मचा हुआ है बाहर। मैं लिखना रोक कर उठकर खिड़की से झाँक आई हूँ, इतनी तेज़/ घनघोर बारिश और हवा है कि कुछ भी दीखता नहीं। इस से मैं यह अंदाज़ा लगा रही हूँ कि बादाम के वृक्ष की जो तस्वीरें मैंने कल उद्यान में लीं थीं, यदि वे आने वाले कल के लिए स्थगित रखती तो निश्चित ही कल यह दृश्य नहीं मिलता। कितना छोटा है जीवन और कितनी बड़ी हैं तमन्नाएँ कि उदासियों के ज़िक्र के बिना मिटती ही नहीं! (तस्वीरें 23 मार्च 2018 को लीं गईं।)

रविवार, 18 मार्च 2018

गाली देने वाली लड़कियाँ

कभी उनसे बात करना तो 
साथ रखना तहज़ीब और तमीज़ 
वर्ना गालियों की बौछार 
मिल सकती है उपहार।  
पीड़ा की 
असहनीय आग से 
गुज़र चुकी होती हैं  
जन्मों जन्मों से 
ज़ख्मों की 
टीस में पली होती हैं   
गाली देने वाली लड़कियाँ। 


उन्हें लगता है उनके सर पर 
मोर पंखों का ताज रखा है 
जिसकी ऊँची उड़ान से वे 
सैर कर आएँगी 
दुनिया भर के अजूबों की  
लेकिन वे कभी भूलती नहीं कि 
कांटें बिछे रहते हैं 
उनके क़दमों तले , 
इसीलिए 
अक्सर दोगली होती हैं 
गाली देने वाली लड़कियाँ। 
घिन्न आने लगती है 
करके उनसे वार्तालाप 
जैसे अचानक घेर लेता है 
कोई अबूझा संताप 
पीछा छुड़ा दूर जाने 
की  उठती है तमन्ना 
बगल में मचलती है खुजली 
चेहरे पर दमकता है पसीना 
तभी तो, 
लगती हैं बदबूदार और कुरूप  
गाली देने वाली लड़कियाँ। 

नहीं करतीं वे बे-बात कोई विवाद 
अक्सर हॅंस हॅंस करती हैं परिहास  
पुराने प्रेमी के वे बताती नहीं किस्से 
छुपा भी नहीं पातीं टूटे दिल के हिस्से 
जिससे चाहा था कहना 
मन की प्यारी बात 
वही निकला कायर 
छोड़ा बीच राह साथ 
कहा तो था..  
बड़े घाव दिल में रखती हैं समेटे
गाली देने वाली लड़कियाँ। 
-Poojanil

रविवार, 4 मार्च 2018

पोस्टकार्ड मटमैला

[25/03/2016] डायरी से-
 यादें हमारे मन मस्तिष्क के किस कोने में घर बसाती हैं, यह तो हम कभी नहीं जान सकते, किंतु जब यही यादें अचानक सामने आकर चौंका देती हैं तो यह ज़रूर जान लेते हैं कि कोई याद हमारे ही भीतर छिपी सांस ले रही थी, पल रही थी अपने प्रत्यक्ष होने की प्रतीक्षा में।
आज होली पर अचानक ऐसी ही एक याद सामने आई, जब मैंने अपने परिवार और मित्रों को वर्चुअल होली की बधाई भेजी।
मैंने अपना पहला ख़त तब लिखा होगा जब मुझे अक्षर ज्ञान हुआ। अ आ ई इ लिख कर अपने ननिहाल भेजा होगा। जिसे पढ़कर जाने कितनी प्रशंसा भी पाई होंगे उस ख़त को पढ़ने वालों से। उसके बाद ख़त लिखने का सिलसिला जब तक ब्याह न हुआ, चलता ही रहा। शादी के बाद भी कुछ समय यह सिलसिला जारी रहा। फिर जल्द ही ई मेल्स ने इसकी जगह ले ली। फिर और भी गति बढ़ी। चैट फिर व्हाट्सऐप। अब ख़त नहीं लिखती मैं। किसी को भी नहीं। सब कुछ सन्देश इंस्टेंट मेसेज के जरिये भेजे जाते हैं।
खैर, यह याद नहीं थी। मुख्य याद है 15 पैसे वाला पीला सा  मटमैला रेतीले रंग वाला  पोस्टकार्ड। आपमें से बहुतों को याद होगा वह पोस्टकार्ड। जब बहुत छोटी थी तब से ही याद है कि पिताजी अपने परिवार और मित्रों को प्रत्येक त्यौहार पर उसी पोस्टकार्ड पर सन्देश स्वयं अपने हाथ से लिखकर भेजते थे। उनकी हस्तलिपि बेहद सुंदर रही। मैं भाषा कुछ कुछ समझने लगी तो उनका साथ देने लगी पोस्टकार्ड लिखने में। फिर एक समय ऐसा भी आया जब उनके सारे पोस्टकार्ड्स लिखने का जिम्मा मेरा रहा। त्यौहार से लगभग दस दिन पहले लिख कर सन्देश भेज दिया जाता था। मैटर इतना सिम्पल था कि मुझे बचपन से ही याद हो गया था। We wish you and your family a very happy.... so n so त्यौहार।  पापा हिंदी में भी शुभकामनाएं भेजते थे। हिंदी में मेटर भी इसी तरह बेहद छोटा सा होता था। आपको और आपके पूरे परिवार को फलाँ फलाँ त्यौहार की बधाई।
नीचे पापा के नाम के साथ उनके हस्ताक्षर। और सबसे ऊपर दायें कोने में तारीख और शहर का नाम। पोस्टकार्ड के दूसरी तरफ दो कॉलम होते थे। प्रेषित प्रेषक .. यानी एक तरफ भेजने वाले का पता लिखते हम और दूसरी तरफ पाने वाले का पता। करीब 30-35 पोस्टकार्ड्स तैयार करके इसी तरह भेजे जाते थे। उनमें से कई लोग जवाब भी देते थे, तो मुझे बड़ी ख़ुशी होती थी कि पढ़कर किसी ने पोस्टकार्ड के जरिये जवाब तो दिया।
आज भी यदि किसी ने मेरे पापा के उन, त्यौहार पर बधाइयों वाले, पोस्टकार्ड्स संभाल कर रखे हों तो निश्चित ही मेरी हस्तलिपि उनके पास अमानत के तौर पर रखी हुई होगी।
इस साल 2016 में होली पर मेरी बधाई सबको पहुँच गई होगी, पर मेरी हस्तलिपि नहीं पहुंची। पापा के साथ होली खेले हुए भी तो बीस साल हो गए!
-पूजानिल

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

प्रेरणादायक

अनुभव -
कुछ दिन पहले मैं डॉक्टर के केबिन के बाहर अपने बुलाये जाने की प्रतीक्षा कर रही थी। मुझसे पहले ही एक बुजुर्ग महिला भी प्रतीक्षा कर रही थी। यूँ ही सामान्य सी बातें चल निकलीं उस से। वह उस डॉक्टर की तारीफ कर रही थी कि यह बहुत ही अच्छी डॉक्टर है। वह पहले कई बार आ चुकी थी, मैं पहली बार गई थी उसके पास।
बातों बातों में उसने बताया कि वह 80 साल की है। सुनकर मुझे हैरानी हुई, क्योंकि वह अधिकतम पैंसठ- छासठ साल की स्वस्थ, सक्षम और सजग महिला लग रही थी। मैंने कहा आप अस्सी साल के नहीं लगते हो, किस तरह इतना सुडौल और खूबसूरत बनाये रखा है खुद को? उसने कहा मैं खूब ध्यान रखती हूँ अपना। खूब पानी पीती हूँ और रोज़ ताजा बना खाना खाती हूँ। पैदल करने जाती हूँ और घर के काम भी करती हूँ। आगे उसने कहा आजकल लोग बहुत जल्दी अपनी त्वचा ख़राब कर बैठते हैं और उनके पास समय भी नहीं अपना ध्यान रखने का। मैं उनकी बात से सहमत थी।
प्रेरणादायक बात यह कि एक अस्सी वर्ष की महिला, खुश और तारो ताजा दिखती बुजुर्ग स्त्री स्वयं ही निपट अकेली हॉस्पिटल आई थी, वो भी लोकल बस में। किसी तरह की कोई शिकायत नहीं कि पति साथ नहीं आया और ना ही बच्चों से कोई उम्मीद कि वे उसके साथ आएंगे।
उस से बात करके मुझे महसूस हुआ जवान बने रहने का एक राज़ यह भी है कि स्वयं को सक्षम बनाया जाए और जहां तक संभव हो किसी और के भरोसे न रहा जाए। किसी का मोहताज होना अर्थात स्वयं को कमजोर करना। जबकि स्वयं पहल करके अपने काम करना अर्थात स्वयं को मजबूत बनाना, अपने आप को शक्ति प्रदान करना। फिर चाहे कोई भी उम्र हो आप सदैव स्वावलम्बी रहेंगे, खुश प्रसन्न रहेंगे।

एक पाती

एक पाती आती है,
मैं आकाश चूमना चाहता हूँ,
आभासी है आकाश, महसूस होने से परे
मैं धरती चूम लेता हूँ.
एक पाती आती है,
मैं नदी को गले लगाना चाहता हूँ,
चुलबुली है नदी, रूकती नहीं कहीं,
मैं पत्नी से लिपट जाता हूँ.
एक पाती आती है,
मैं घने वृक्ष सा झूमना चाहता हूँ,
झड चुके हैं पत्ते,
मैं बच्चों को निकटतम खींच लेता हूँ,
फिर करता हूँ प्रतीक्षा,
और एक पाती आये...!


कविता हूँ मैं

तुम्हारी किताब में  लिखी हुई, 
बेअंत नज़्म हूँ मैं,
तुम्हारे शब्दों में कही गई, 
आँखों में ठहरी हूँ मैं ,
तुम्हारे ख्वाब में पली हुई ,
हज़ार रंगों की कविता हूँ मैं .
यूँ पढ़ना मुझे तुम, कि मेरे 
सारे रंग तुम में समा जायें।



राही

कई प्रकाशवर्षों से 
चल रहा हूँ 
काफ़िला साथ लिये 
किसी और रौशनी में 
मेरी मंज़िल 
निहित होगी 
कि राह चुकती नहीं 
चाह थकती नहीं 
ख़ानाबदोश है आह 
वक़्त ज़रुरत 
मेरा साथ देती नहीं



मौला

मैंने उड़ान भरी
पंछियों की तरह 
मैंने नृत्य किया 
सूफ़ियों की तरह 
मेरी देह 
मिट्टी की हुई 
उड़ी,
लचकी,
ढह गई


*****************

मैं सजदा करूँ,
मुझे थाम लेना मौला
मैं बिछड़ जाऊँ,
मुझे खोज लेना मौला
मैं भूलूँ,
तुम न भूलने देना
मेरा चेहरा,
तेरी ही पहचान मौला।


******************

तू ही रंग 
तू ही बेरंग 
तुझसे प्रेम 
तुझसे ही जंग 
मैं इक परछाई 
बेनूर 

तेरे बिन मौला 
आ, रंग मुझे
तेरे रंग मौला 
इस वजूद को 
जलवा दे मौला 



ईश्वर

मैं प्रेम पूरित
मैं करुणचित्त
तुम नित्य मेरी
ममता जनित
सब और से
स्नेह निहित
तुम बूझ लो
यह सर्वविदित।

कहानी में लड़का 3

 -3 - स्त्री देह में

मुंडेर पर पाँव झूलाता है, सामने
देखता है झूले पर उमगती लड़की
बचपन से सीखा था उसने,
लड़के पतंग उड़ाते हैं
कबड्डी खेलते हैं
तैर कर नदी पार जाते हैं,

झूला लडकियां झूलती हैं,
श्रृंगार के लिए आइना देखती हैं
हंसी ठिठोली में शाम नष्ट करती हैं
तब से झूले पर नहीं बैठा वो
हैरानी होती उसे कि
उसके भीतर कोई स्त्री तत्त्व नहीं रहता!!
जो कुछ था वो क्यों बस पुरुषत्व था?
स्त्री पुरुष का अलगाव उसे बुरा लगता
धारणाओं में बदलाव चाहता था
चाहता था कि उसकी बावरी  
खेतों में उसके साथ दौड़े
तैर कर नदी पार चले
चाहता था कि बावरी के झूले में
वह भी सवार हो चाँद छू ले
कल्पनाओं में कई बार
घेरदार घाघरा चुनर ओढ़
बावरी सा घूमर नृत्य किया उसने
आईने के आगे काजल पहना
माथे पर टिकुली सजाई
कई बार बढ़ाई झूले पर पेंग,
कई बार सेकी बाजरी की रोटी
अपने हाथों से खिलाई प्याज संग
अपनी रूपमती स्त्री को, उसके
पग पखार पंखा झलता रहा
तभी खेत से गुजरती हुई
माँ सामने आ खड़ी हुई उसके
कल्पनाएँ हलकी थी, हवा हुई
माँ के आगे नज़र न उठा पाया
झेंप कर मुंडेर से गिर पड़ा वो
बावरी ने लपक कर थामा
खुद लोट गई उसके पाँव तले
माटी सनी उसकी देह
पुरुषत्व को लगी बल देने.


कहानी में लड़का 2

 -2 - याद गली 
  
वह छत पर उडाता है पतंग 
दौड़ता है रेल की पटरियों पर 
खींचता हैडोर पतंग की तन जाती है 
थम जाती है रेलदिखती है 
खिड़की के पार दादी माँ 
सुबह सवेरे कराती है मंजन 
खिलाती है चाय में डूबा जीरा टोस्ट 
पीछे आते हैं दादाजी 
झक्क सफ़ेद दूध का गिलास उठाये 
ठीक उतना ही गर्म
जिस से न जीभ जले न दिल
उसकी पतंग उड़ान भरती है 
रुक जाती हवा में ही माँ के प्रवेश से 
नहलाकर यूनिफॉर्म पहनाती है माँ 
बुआ खिलाती है दही परांठे का नाश्ता 
सब विदा करते हैं,
स्कूल पहुंचाते हैं पिता 
शाम को लेने आते हैं चाचा 
फिर चल पड़ती है थमी रेल 
समय के अबूझ रथ पर 
हवा में मचल उठती है पतंग 
कसने लगता है मांझा 
पेंच लड़ाता है वो,
चांदनी की छत पर 
(बचपन में उसे चाँद पुकारता था)
देखता था उसके पारभासी कंठ से 
किस तरह उतरता था पानी 
फिर आईने के सामने पिया किया पानी 
अपारदर्शी नेक बोन हिलती 
हंस पड़ता वो 
कुदरत के दोगलेपन पर 
लहू उभर आया है डोर थामे हुए 
उसकी रेल ठहरी प्रथम स्पर्श पर 
झुरझुरी ने हवा दी 
लालायित किया छूने को 
एक बल खाती है पतंग  
आकाश चूमती है 
दौड़ पड़ती है वेगवान रेल 
दोनों पटरियों पर टिकी 
लड़का गिनता है रेल के डिब्बे 
रेल वही हैपटरी वही 
डिब्बों की  संख्या 
बदल जाती है 
हर बार, पतंग नए रंग की. 

कहानी में लड़का 1


-1- आहट

वह लड़का जो उस राह पर
रोज़ करता था प्रतीक्षा,
एक दिन बेचैनी ओढ़
आया तोप सा दनदनाता हुआ और
उड़ेल दिया अपना दिल लड़की को रोक कर।

प्रणय निवेदन से पहले
हज़ार बार लाखों बार
उसने टटोला खुद को, 
धड़कते दिल को थम जाने की ताकीद की 
गुस्साया खुद पर
झल्लाया मन ही मन इस स्वीकृति पर
रोकना चाहा प्रेम को खुद ही तक।

इस सारे गुस्से, झल्लाहट और संकीर्णता से परे
मन की उद्दात लहरों पर
उसने खोजी एक राह उम्मीद की,
दिन भर कवायद के बाद भी
नई ऊर्जा से दमकते हुये
प्रेम में थिरकने का जज़्बा जगाया उसने।

किये कई नाराज़ पल स्वाहा
बस एक प्रेम अनुभूति जीने की चाह में
वो मुस्काया हर उस उदास पल में
जब अचानक खवाबों की तस्वीर ने 
किया जेहन पर कब्ज़ा
जब चूमा उसने अपनी प्रिया को
नशे में या होश में,
जब ऊँगली में फँसी सिगरेट की जलन से याद आया उसे कि
अभी आलिंगन का सुख पेंडिंग है।

हसरतें छलक जाने के पल में,
जब मचल मचल रोया उसका किशोर मन
और ख़यालों में लड़की को समर्पित प्रेम
पुनः पा लेने का हौसला
उसके कंधों पर तमगा बन झिलमिलाया, 
तब आवेग में
किया उसने प्रेम निवेदन,
बिना यह जाने 
कि लड़की ने हज़ार बरस पहले 
उसके आने की आहट 
बंद पलकों पर रखे 
प्रेम के फाहों से सुन ली थी। 

आराध्य

मेरे आराध्य तुम
तुम आराधो मुझे
एक ही तत्त्व शक्ति
एक ही तत्त्व शिव
सर्वत्र सर्वत्र सर्वत्र

समर्पित

मेरे नेत्रों की ज्योति
तेरी राह करे जगमग
मेरे हाथों की लकीरें
तुझे रहें संभाले पग पग
इस धरा गगन में बन्दे
भरा प्रेम हर कण कण
ज़रा शीश झुका कर देखो
मैं तुझे समर्पित प्रति क्षण !

गैरहाजिर


याद नहीं आता मेरी  
कौनसी कविता में 
पहली बार प्रेम आया होगा 
यह भी नहीं स्मृति में 
कि  प्रेम शब्द रूप  में आया 
या भाव रूप में? 

संभव है यह भी कि 
प्रत्येक कविता में 
प्रेम लिखा हो 
कभी रोष की तरह 
कभी स्नेह की तरह 

यह भी अनुकूल है कि 
किसी ने पढ़ कर प्रेम 
अनुभव किया होगा 
किसी ने प्रेम 
उपेक्षित किया होगा 

सुदूर बलते दिये की 
लौ सा है मेरा प्रेम 
चाहो सुगन्धित हो लेना 
चाहो अवहेलना कर लेना 
सम्भाव्य यही अटल कि 
अबोध प्रेम की आंच 
तुम तक पहुंचेगी अवश्य।

मत रोना

देखो, बारिशों में कभी मत रोना
भीगेगी देह भी
भीगेगी रूह भी 
तब धूप भी न होगी 
कि मन की नमी सोख ले!
और सुनो, मत रोना गर्मियों में 
आंसूं और पसीना 
एक से दिखेंगे 
कोई आँख में छिपी 
दर्द की लकीर 
पकड़ ही न पायेगा।
बहुत मन करे तो रो लेना 
पतझड़ में 
किसी डाल से गिरते 
सूखे पत्ते पर गिरा देना 
अपना एक आंसूं 
जी उठेगा वो 
नवजीवन की आस में।

अंतिम स्पर्श

सोचती हूँ 
स्वयं को एक तस्वीर में ढाल  
दोहरा जीवन जी लूँ !

अक्सर ऐसा होता आया है 
लोग मांग लेते हैं तस्वीर 
अपने कमरे सजाने के लिए 
या दिल के खेल खेलने के लिए 
कभी कभी तो सिर्फ अपने 
कम्प्यूटर स्क्रीन सजाने के लिए 
एक तरह से आदत भी है मुझे 
तस्वीर में मुस्कुराने की 
कोई देखेगा तो 
अजनबी नहीं लगेगी मेरी तस्वीर 

सोचती हूँ 
इनकार नहीं करुँगी किसी को 
जब कोई चूमना चाहेगा मेरी तस्वीर 
अपनी वासना में भरपूर 
ना ही रोकूंगी 
किसी के प्रेम का आवेश 
जब मेरे सामने स्वीकार करेगा वो 
यूँ भी तो मैं नहीं जानती 
जाने कितनी बार उसने 
अपनी भड़ास निकाली होगी मुझ पर !
जाने कितनी बार अपने जेहन में 
किया होगा 
किसी ने मेरा बलात्कार ! 

सोचती हूँ 
एक रोज़ 
मैं पत्थर सी हो जाउंगी 
दिल से, दिमाग से ,

कठोर ऐसी कि किसी 
कोमल छुअन से भी 
रहूं अविचलित ,
भंगुर भी ऐसी कि 
घन हथौड़े केआघात से 
खंड खंड जाऊं बिखर !

उस रोज़ तुम आना और 
मेरी राख समुन्दर के हवाले कर देना 
मैं याद रखूंगी 
बस वही अंतिम और पावन स्पर्श!